कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में
काम से थक जाऊँ या मानव के अमानवीय व्यवहार से ऊब उठू तो ताज़गी के लिए दौड़कर प्रकृति की गोद में जा पहुँचता हूँ। समय कम हो तो खेत पर और ज़्यादा हो तो पर्वत की गोद में।
मुझे लगता है कि ये पर्वत ही हमारी संस्कृति के प्रसूतिगृह हैं और यों मैं उनके वातावरण में पहुँच, एक आध्यात्मिक आँचल की छाया का स्पर्श पा पुलकित हो उठता हूँ। फिर जहाँ पुलक है, वहाँ थकान कहाँ, अवसाद कहाँ, निराशा कहाँ?
यह है एक हिल-स्टेशन-पर्वतीय नगर, जिसमें मैं ठहरा हूँ। घूमता हूँ, देखता हूँ, सोचता हूँ, लिखता हूँ; बस यही मेरी पिकनिक है। कमरे की पिछली खिड़की से झाँका तो दिखाई दिया-दूर, एक साफ़-समतल मैदान, जिसके चारों तरफ़ देवदारु के वृक्ष ही वृक्ष। सोचा, वहाँ बैठकर कुछ लिखा जाए तो बडा मज़ा रहे और बस आयी फरैरी तो चल पड़ा।
घर के पास की छोटी सड़क और उससे उतरती पगडण्डी। चला जा रहा हूँ रपटता-झपटता उदकता-कुदकता और यह लो मैं हूँ उस मैदान में ! शान्त एकान्त वातावरण, सचमुच कुटिया बनाने लायक़ स्थान है।
कुटिया आज निरादृत है और कोठी समादृत, पर कुटिया है संस्कृति का केन्द्र और कोठी सभ्यता का। कुटिया में हम उपार्जन करते हैं और कोठी में व्यय; पर कुटिया देश की दुर्गति के दिनों में अभाव का प्रतीक बन गयी; त्याग का मन्दिर न रही और यों हम सांस्कृतिक दिवालिया हो गये।
कुटिया और कोठी के विचार-चक्र पर जाने कब तक घूमता रहा, पर सूरज ढला तो मैं चला। मस्तिष्क में विचार अब भी हैं, पर बढ़ा जा रहा हूँ। बढ़ा क्या जा रहा हूँ, चढ़ा आ रहा हूँ घर की ओर, पर यह क्या कि पसीना आ रहा है और यात्रा बोझिल है। हरेक क़दम पहले से भारी हुआ जा रहा है, बात क्या है यह?
ओह, यह स्थान खड्ड में है और अब मुझे चढ़ाई चढ़नी पड़ रही है। तो चढ़ रहा हूँ, थक रहा हूँ और सोच रहा हूँ, गिरना आसान है, उठना कठिन है। गिरने में सरलता है, देखती आँखों में सरसता भी है, पर उठने में श्रम है, साधना है।
तभी एक प्रश्न पटबीजना-सा भीतर चमक उठा-क्या ऊपर उठने के श्रम में, साधना में मिठास, रस और आनन्द नहीं है? वह रूखी-सूखी ही चीज़ है? शायद हो, पर अपने जीवन की लम्बी साधना में मुझे तो कहीं रूखापन नहीं मिला; फिर भला मैं कैसे कहूँ कि साधना एक रूखी चीज़ है? सिद्धि समाप्ति है, लीनता है, पर साधना तो मधुर ही मधुर है !
ठीक है, पर मुझे ऊपर जाने में यह आनन्द क्यों नहीं मिल रहा है? प्रश्न तो अपना ठीक है, ठीक जगह है, पर ना, ठीक लगता है, ठीक कहाँ है? साधना की आत्मा है स्वेच्छा और मेरे इस ऊपर जाने में स्वेच्छा नहीं, मजबूरी है, अनजाने यहाँ आ गया, अनचाहे ऊपर जा रहा हूँ, इसमें साधना कहाँ, यह तो बोझ है !
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- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
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